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कैदी की सजा को राष्ट्रपति ने बदला, अब सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया राष्ट्रपति का आदेश

💥 सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: 1994 के तिहरे हत्याकांड में दोषी करार नौकर को 25 साल बाद न्याय मिला! अदालत ने खुद अपने पुराने फैसले को बदला, जानिए कैसे स्कूल रिकॉर्ड ने बचाई उसकी जान

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कैदी की सजा को राष्ट्रपति ने बदला, अब सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया राष्ट्रपति का आदेश
कैदी की सजा को राष्ट्रपति ने बदला, अब सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया राष्ट्रपति का आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में 30 साल पुराने तिहरे हत्याकांड के दोषी को रिहा करने का आदेश दिया है। यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही पुराने आदेश और राष्ट्रपति के निर्णय को दरकिनार कर दिया। अदालत ने पाया कि अपराध के समय दोषी सिर्फ 14 साल का था, लेकिन कानूनी सहायता के अभाव में वह 25 साल जेल में बिता चुका था।

क्या है पूरा मामला?

15 नवंबर 1994 को देहरादून में सेना के एक पूर्व अधिकारी और उनके परिवार के दो सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। इस जघन्य अपराध के लिए उनके नौकर ओम प्रकाश को दोषी ठहराया गया। निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हर स्तर पर उसे फांसी की सजा सुनाई गई। यहां तक कि उसकी रिव्यू पिटीशन (Review Petition) और क्यूरेटिव पिटीशन (Curative Petition) भी खारिज कर दी गई थी। बाद में 2012 में राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका पर सजा को 60 साल की कैद में बदल दिया गया था।

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कैसे सामने आया नाबालिग होने का सच?

ओम प्रकाश ने शुरुआत से ही खुद को नाबालिग बताते हुए अपील की थी, लेकिन उसका बैंक अकाउंट उसके खिलाफ सबूत बन गया। अदालत ने माना कि यदि वह बालिग नहीं होता, तो बैंक अकाउंट नहीं खुल सकता था। लेकिन जब दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (National Law University) के प्रोजेक्ट 39 A ने उसका केस उठाया, तो नए सबूत सामने आए।

प्रोजेक्ट 39 A के सदस्यों ने पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी से उसके स्कूल का रिकॉर्ड निकाला, जिससे साबित हुआ कि अपराध के समय उसकी उम्र सिर्फ 14 साल थी। इसका मतलब था कि उसे अधिकतम 3 साल की सजा मिलनी चाहिए थी, लेकिन उसने 25 साल जेल में गुजार दिए, जिनमें से 11 साल फांसी का इंतजार करते बीते।

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सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम एम सुंदरेश और अरविंद कुमार की बेंच ने इस मामले की सुनवाई करते हुए माना कि ओम प्रकाश के साथ गंभीर अन्याय हुआ है। जस्टिस ने कहा कि यदि किसी भी मुकदमे के किसी भी स्तर पर आरोपी के नाबालिग होने के प्रमाण मिलते हैं, तो अदालत को उसी के अनुसार कानूनी प्रक्रिया अपनानी चाहिए।

कम शिक्षा और कानूनी सहायता की कमी बनी बाधा

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि अगर ओम प्रकाश को समय पर सही कानूनी सहायता मिलती, तो वह इतने साल जेल में नहीं बिताता। उसकी कम शिक्षा (Low Education) और अपर्याप्त कानूनी मदद (Lack of Legal Assistance) उसकी रिहाई में सबसे बड़ी बाधा बनी। यदि यह जानकारी पहले मिल जाती, तो उसे सिर्फ सुधार गृह में रखा जाता और वह सामान्य जीवन जी रहा होता।

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उत्तराखंड हाई कोर्ट ने याचिका क्यों खारिज की थी?

इससे पहले, ओम प्रकाश ने उत्तराखंड हाई कोर्ट (Uttarakhand High Court) में भी याचिका दायर की थी। उसने अपनी हड्डियों की जांच रिपोर्ट और अन्य सबूतों के आधार पर खुद को नाबालिग साबित करने की कोशिश की थी। लेकिन हाई कोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि राष्ट्रपति तक इस मामले का निपटारा कर चुके हैं, इसलिए इसे दोबारा नहीं खोला जा सकता।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस राय से सहमत नहीं हुआ। अदालत ने कहा कि यदि मुकदमे के किसी भी चरण में आरोपी की उम्र से जुड़े नए सबूत सामने आते हैं, तो न्यायिक प्रक्रिया को सही दिशा में मोड़ा जाना चाहिए।

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क्या कहता है जुवेनाइल जस्टिस एक्ट?

जुवेनाइल जस्टिस एक्ट (Juvenile Justice Act) के अनुसार, किसी भी नाबालिग को अधिकतम 3 साल तक सुधार गृह में रखा जा सकता है, लेकिन वयस्क अपराधियों की तरह उसे फांसी या उम्रकैद नहीं दी जा सकती। ओम प्रकाश का केस इस कानून के उल्लंघन का एक बड़ा उदाहरण बन गया था।

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क्या होगा अब?

अब जब सुप्रीम कोर्ट ने उसकी रिहाई का आदेश दिया है, तो ओम प्रकाश जल्द ही जेल से बाहर आ जाएगा। यह फैसला भविष्य में ऐसे कई मामलों के लिए एक मिसाल बनेगा, जहां दोषी को गलत कानूनी प्रक्रियाओं के कारण कठोर सजा दी गई हो।

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