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Premanand ji Maharaj: क्या है प्रेमानंद महाराज का असली नाम, कैसे बन गए संन्यासी?

प्रेमानंद जी महाराज, वृंदावन के प्रसिद्ध संत, का जीवन त्याग और भक्ति का प्रतीक है। कानपुर के छोटे से गांव में जन्मे महाराज ने 13 वर्ष की उम्र में घर छोड़कर गंगा के किनारे साधना की और गंगा को अपनी माँ का दर्जा दिया। उनका प्रेरणादायक जीवन और प्रवचन आज भी लाखों लोगों को मार्गदर्शन देते हैं।

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Premanand ji Maharaj: क्या है प्रेमानंद महाराज का असली नाम, कैसे बन गए संन्यासी?
Premanand ji Maharaj

प्रेमानंद जी महाराज, जिन्हें वृंदावन वाले महाराज के नाम से भी जाना जाता है, आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनके प्रवचन सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते हैं, और उनकी आध्यात्मिक यात्रा लोगों को प्रेरित करती है। लोग उनके जीवन के बारे में अधिक जानने के इच्छुक रहते हैं। आइए उनके जीवन की अनोखी और प्रेरणादायक कहानी को विस्तार से समझते हैं।

कानपुर के सरसौल ब्लॉक में जन्म

प्रेमानंद जी महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के सरसौल ब्लॉक के अखरी गांव में हुआ था। एक साधारण लेकिन धार्मिक परिवार में जन्म लेने वाले प्रेमानंद जी का बचपन भारतीय संस्कृति और धार्मिक मूल्यों के बीच बीता।

पूजा-पाठ का माहौल और पारिवारिक जड़ें

महाराज का परिवार प्रारंभ से ही धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण में रचा-बसा था। उनके पिता शंभू पांडे एक धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, और उनकी माता रामा देवी परिवार में पूजा-पाठ के संस्कारों को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती थीं। उनके दादा जी भी संन्यास धारण कर चुके थे, जिससे यह स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता उनके परिवार की धरोहर थी।

बचपन का नाम और शिक्षा

महाराज का जन्म नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई। पांचवीं कक्षा में ही उनका झुकाव धार्मिक क्रियाकलापों की ओर होने लगा। उनके पिता के साथ पूजा-पाठ में सम्मिलित होने के कारण उन्होंने छोटी उम्र में ही अध्यात्म को समझना शुरू कर दिया।

आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत

आठवीं कक्षा के बाद, जब वह 9वीं में पहुंचे, तो उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह से अध्यात्म के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया। यह निर्णय आसान नहीं था। उन्होंने अपनी माँ को सबसे पहले अपने निर्णय के बारे में समझाया और 13 वर्ष की छोटी उम्र में ही घर छोड़कर भगवत भक्ति में लीन हो गए।

गंगा किनारे साधना और त्याग

घर छोड़ने के बाद प्रेमानंद जी महाराज का अधिकांश समय गंगा के घाटों पर बीता। वाराणसी से लेकर हरिद्वार तक, उन्होंने गंगा के किनारे साधना की। गंगा को उन्होंने अपनी दूसरी माँ का दर्जा दिया और उनका संपूर्ण जीवन गंगाजल और भक्ति में समर्पित हो गया।

भक्ति में लीन जीवन

प्रेमानंद जी महाराज ने अपने प्रारंभिक संन्यास जीवन में हर कठिनाई का सामना किया। बिना भोजन के भी उन्होंने अपने संकल्प को टूटने नहीं दिया। उनका त्याग और भक्ति आज के युवाओं को एक नई दिशा दिखाता है।

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